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अबू धाबी का पहला ऐतिहासिक हिंदू मंदिर। स्वामी चिदानंद सरस्वती ने किये दर्शन।बीएपीएस संस्था और यूएई के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान को दिया धन्यवाद

ऋषिकेश। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने मातृभाषा दिवस पर अबू धाबी के ऐतिहासिक हिन्दू मन्दिर के दर्शन किए। इस अनुपम उपलब्धि के लिये बोचासनवासी श्री अक्षर पुरूषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) और यूएई के राष्ट्रपति मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान को धन्यवाद दिया, और कहा कि इसका पूरे विश्व पर इसका  अविस्मरणीय प्रभाव दिखाई देगा। भविष्य में इसका व्यापक और वैश्विक असर देखने को मिलेगा।

स्वामी जी ने श्री ब्रह्मविहारी दास स्वामी जी से कहा कि प्रभु की असीम कृपा है कि अबू धाबी में यह ऐतिहासिक, अद्भुत, विस्मयकारी मंदिर का निर्माण हुआ। यह आपके द्वारा की गयी सेवा और समर्पण का उत्कृष्ट प्रमाण और प्रतीक चिन्ह है। आप दुनिया भर में दिव्य मंदिरों का निर्माण कर रहे हैं। आपने मन्दिरों के माध्यम से आध्यात्मिकता और धार्मिकता चेतना को जीवंत व जागृत कर दिया है।

यह मंदिर न केवल भगवान स्वामीनारायण और सनातन धर्म के लिए बल्कि एकता, एकजुटता और सद्भावना की महान शक्ति के प्रमाण के रूप में हमेशा खड़ा रहेगा। यहां से सनातन का प्रचार व प्रसार विशुद्ध रूप से होता रहे यही भगवान से मेरी प्रार्थना है। स्वामी जी ने कहा कि सनातन का अर्थ ही है जो सब के लिये है, सदा के लिये है और जो सब को साथ लेकर चलता है। वास्तव में समानता, सद्भाव व समरसता का उत्सव ही तो सनातन है।

अबू धाबी, हिन्दू मन्दिर के माध्यम से पूजा के साथ पर्यावरण और संस्कृति के साथ प्रकृति का जो संदेश दिया जा रहा है वह वास्तव में अद्भुत है। साथ ही यह वैश्विक सौहार्द स्थापित करने में भी मददगार सिद्ध होगा। इस ऐतिहासिक मन्दिर के माध्यम से समता, सद्भाव, समरसता व अध्यात्म का ध्वज सदैव लहराता रहे इस हेतु स्वामी जी ने भारत के तपस्वी, यशस्वी और ऊर्जावान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को धन्यवाद देते हुये कहा कि यह इतना आसान नहीं है परन्तु श्री मोदी जी ने कर के दिखाया, वास्तव में मोदी है तो मुमकिन है। वर्तमान समय में न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में सांस्कृतिक पुनरोदय की शुरूआत हो गयी है।

अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा कि ‘‘माँ, मातृभूमि और मातृभाषा ये तीनों ही संस्कारों की जननी हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण भी है।’’ मातृभाषा हमें अपने मूल और मूल्यों से जोड़ती है। माँ से जन्म, मातृभूमि से हमारी राष्ट्रीयता और मातृभाषा से हमारी पहचान होेती है इसलिये जरूरी है कि हम कम से कम अपने घर-परिवार में अपनी मातृभाषा में ही वार्तालाप करें ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी भाषा के माध्यम से अपनी संस्कृति, संस्कार और मूल को जान सके।

भारत की संस्कृति विविधता में एकता, बहुभाषा एवं भाषायी सांस्कृतिक विविधता की हैं और यही भारत की अनमोल, अद्भुत और अलौकिक संपदा भी हैं परन्तु लुप्त होती भाषायें चिंतन का विषय हैं। अगर भाषायें विलुप्त होती रही तो संस्कृति भी विलुप्त होने की कगार पर आ जायेगी इसलिये क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वदेशी भाषाओं का संरक्षण, समर्थन और उन्हें बढ़ावा देना नितांत आवश्यक हैं।

स्वामी जी ने कहा कि स्थानीय भाषाओं के संरक्षण के लिये अपनी भाषा को बोलने और उसे दिल से स्वीकारने की जरूरत है। अपनी भाषा, लिपि और अपनी संस्कृति को जीवंत बनाए रखना हम सभी का परम कर्तव्य हैं। हमें कम से कम पारिवारिक स्तर पर एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा जहां अपनी मातृभाषा के स्थान पर किसी दूसरी भाषा को स्थापित करने की जरूरत न पड़े।

छोटे बच्चों से बचपन से ही अपनी मातृभाषा में वार्तालाप करने से वे सहजता से भाषा को सीख सकते हैं। भाषा की सहजता से बच्चों की रचनात्मकता में भी वृद्धि होगी साथ ही अपनी भाषा में विचारों की अभिव्यक्ति भी सरलता से की जा सकती हैं। किसी व्यक्ति की मातृभाषा उस व्यक्ति की पहचान को भी दर्शाती है।

स्वामी जी ने कहा कि मातृभाषा को बढ़ावा देना, भाषायी अंतर से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता – अखंडता की भावना का निर्माण करना अत्यंत आवश्यक है।

स्वामी जी ने अबू धाबी के पहले ऐतिहासिक हिंदू मंदिर को वैश्विक सद्भाव, समरसता, सौहार्दता, एकता और वसुधैव कुटुम्बकम् का जागृत स्वरूप बताया, इसके लिये स्वामी जी ने स्वामी नारायण संस्थान के सभी संतों व कार्यकर्ताओं को धन्यवाद देते हुये हुये कहा कि आप सभी के अथक प्रयासों से यह मन्दिर आपने समय से पूर्व ही तैयार कर सनातन को एक और दिव्य भेंट समर्पित की है।

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