स्वoचन्द्रसिंह राही गढ़वाली गीत संगीत के भीष्म पितामह। पुण्यतिथि पर विशेष रिपोर्ट
एकेश्वर पौड़ी। लोक गायक स्वo चंद्रसिंह राही का जन्म 28 मार्च सन् 1942 को ग्राम गिंवाली विकास खंड एकेश्वर जनपद पौड़ी गढ़वाल में एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके पिताजी जागरी थे, चन्द्रसिंह राही और उनके भाई देवराज रंगीला ने जागर गाने की विधा अपने पिताजी से ही सीखी थी।
स्वo राही ने सदियों पुराने पारंपरिक लोकगीत और वाद्ययंत्रों को सीखा बाद में उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखा। राही ने अपने संगीत कैरियर की शुरुआत 13 मार्च 1963 को आकाशवाणी दिल्ली से सैनिकों के लिए एक कार्यक्रम में गीत गाकर की थी। 1970 के दशक में उन्हें बहुत लोकप्रियता हासिल हुई,रेडियो पर गढ़वाली शब्द पहली बार राही जी की आवाज में ही सुनाई दिए। 1972 में उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ से गाना शुरू किया। इसके बाद उनके गीत आकाशवाणी नजीबाबाद से भी प्रसारित होने लगे। 1980 के दशक के बाद उनके गाने दूरदर्शन पर प्रसारित किए गए।
कहा जाता है कि 1966 में राही ने अपने गुरु प्रसिद्ध गढ़वाली कवि कन्हैयालाल डंडरियाल के लिए “दिल को उमाल” गीत गाया,इस गीत के बाद कन्हैयालाल डंडरियाल ने उन्हें “राही” नाम दिया।
सौलि घुराघुर उनका पहला एलबम रिकॉर्ड किया गया जो उस जमाने में काफी हिट हुआ। राही ने गढ़वाली कुमाऊनी भाषा के 500 से अधिक गीत गाए,लगभग 1500 लाइव कार्यक्रम किए। उनके प्रसिद्ध गीत जरा ठंडू चलादी जरा मठु चलादी, सौलि घुराघुर दगड्या, फ्वा बागा रे, भाना हे रंगीली भाना अब ऐगे बांज कटणा आदि कई अनगिनत गीत आज भी लोकप्रिय हैं।
माना जाता है कि राही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो ढोल दमाऊ आदि सभी बाद्ययंत्रों को बजाना जानते थे।
चंद्रसिंह राही आजीविका की तलाश में दिल्ली गए थे शुरू में उन्होंने बासुरियां बेची,बाद में उन्हें दूर संचार विभाग में नौकरी मिल गई।
राही 40 साल दिल्ली के शकुरपुर में साल किराए के मकान में रहे,वे मकान बनाने के बजाय अपनी जमा पूंजी को लोकसंगीत पर खर्च करते रहे। संगीत के प्रति उनके समर्पण को देखते हुए उन्हें गढ़वाली गीत संगीत का भीष्म पितामह कहा जाता है।
10 जनवरी 2016 को सर गंगाराम अस्पताल में चंद्रसिंह राही ने अंतिम सांस ली, और गढ़वाली संगीत का यह सितारा चिरनिद्रा में लीन हो गया।