“सिलोगी के संत” नाम से प्रसिद्ध श्रद्धेय स्व० संदानंद कुकरेती जी* प्रशांत मैठाणी की कलम से
गढ़वाली भाषा की प्रथम कथा या कहानी गढ़वाली ठाट….
पिछले साल उत्तराखंड के किसी प्रतियोगी परीक्षा में एक पुस्तक के लेखक का नाम पूछा पुस्तक का नाम था “गढ़वाली ठाट” जिसके लेखक के विषय में बताना था। बहुत से प्रतियोगी छात्रों ने मुझे पूछा कि इस पुस्तक के लेखक और उनके कार्यों के विषय में विस्तार से जानकारी साझा करना। तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल जो तब संयुक्त प्रांत के कुमाऊं कमिश्नरी का एक जिला हुआ करता था, चूंकि औपनिवेशिक काल में कुमाऊं कमिश्नर द्वारा उसके अंतर्गत आने वाले पौड़ी, अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों को विभिन्न पट्टियों में विभक्त किया गया था इसी में गढ़वाल जिले की एक पट्टी आती थी या आती है ढांगू पट्टी। गढ़वाल जिले के इसी ढांगू पट्टी में 07 मार्च 1886 को ग्राम ग्वील में श्री सदानंद कुकरेती जी का जन्म हुआ था, इनके पिता श्री बालादत्त कुकरेती थे और जानकारी के अनुसार बालादत्त्त जी तब लोक निर्माण विभाग में सेवा देते थे।
सदानंद जी की प्रारंभिक शिक्षा हमारे क्षेत्र के काफी पुराना प्राथमिक विद्यालय बड़ेथ में हुई और उसके उपरांत हाईस्कूल पढ़ाई हेतु वे चोपड़ा (पौड़ी) गए। सदानंद कुकरेती अपने ही पिता के विभाग में अध्ययन के उपरांत कार्यरत हुए, उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास या औपनिवेशिक काल के आंदोलन में उनकी भागीदारी की चर्चा करें तो उनका नाम पौड़ी जिले से प्रकाशित होने वाले तब अत्यंत लोकप्रिय मासिक समाचार पत्र “विशाल कीर्ति” के संस्थापक में रहा हैं।
गढ़वाली भाषा की प्रथम कथा या कहानी गढ़वाली ठाट शीर्षक से 1913 में सदानंद कुकरेती ने विशाल कीर्ति मासिक पत्रिका में इसको प्रकाशित किया था। सदानंद जी ने सन 1913 में इस समाचार पत्र को शुरू किया था। सन 1913 में श्री ब्रह्मानंद थपलियाल जी द्वारा पौड़ी में बद्री केदार प्रेस की स्थापना की गई थी और इसी प्रेस के माध्यम से सदानंद कुकरेती जी द्वारा विशाल कीर्ति नामक मासिक पत्र प्रकाशन किया गया। गढ़वाल क्षेत्र के सभी भली बुरी जरूरी खबरों को वह बड़ी ही अलग शैली में प्रकाशित करते थे जिसके कारण उन्हें अत्यंत ही लोकप्रिय पत्रकार माना जाता था।
हालांकि सरकार के विरुद्ध लिखने के कारण वह ब्रिटिश अधिकारियों के आंखों में खटकने लगे थे उनके द्वारा सरकार के अनेक काले कारनामों का पर्दा पास किया गया, जिसके लिए उन्हें कई बार सरकार ने प्रलोभन भी दिए किंतु वे अपने मार्ग पर तटस्थ रहे। विशाल कीर्ति की लोकप्रियता इतनी थी कि तब लोग इस समाचार पत्र के प्रकाशन का बड़ी ही बेसब्री से इंतजार करते थे और लोगों को यह प्रतीक्षा रहती थी कि किस अधिकारी की सामत इस महीने के अंक में सदानंद कुकरेती के कलम से होगी।
इसी कारण तब कहीं लाट साहबों का तबादला हुआ और सरकारी महकमों में इस मासिक पत्र के कारण खलबली मची रहती थी। गढ़वाल क्षेत्र के प्रथम सांसद स्व० श्री भक्त दर्शन जी ने अपनी अमूल्य पुस्तक गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां में सदानंद कुकरेती जी को “सिलोगी के संत” नाम से सुशोभित किया है। भक्त दर्शन जी ने अपनी पुस्तक में सदानंद जी का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है वह लिखते हैं कि विशाल कीर्ति पत्र से सदानंद कुकरेती के अलग होने के बाद वे जोध सिंह नेगी के साथ टिहरी रियासत में रीडर पद के लिए 4 सालों तक कार्यरत रहे और उनका तटस्थ रूप देखकर तब टिहरी रियासत में भी उनसे सब थरा्या करते थे।
सदानंद कुकरेती जी ने स्कूली शिक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। भक्त दर्शन जी लिखते हैं पहले सदानंद जी ने चेलूसैंण में हिंदू पाठशाला की स्थापना की और वहीं पर अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे, किंतु कुछ समय उपरांत मतभेद के कारण वे अलग हो गए। उसके उपरांत सदानंद जी ने अपने कुछ छात्रों के साथ सिलोगी में “सिलोगी पाठशाला” की स्थापना की और अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने यह एक आदर्श शिक्षण संस्था के रूप में विकसित किया। 1937 में सिलोगी के संत श्री सदानंद कुकरेती जी का निधन हो गया, हालांकि उसके उपरांत धनाभाव के कारण यह विद्यालय बंद होने की कगार पर आ गया था, उसके उपरांत स्वर्गीय श्री नंदा दत्त कुकरेती जी ने इस विद्यालय का प्रबंधन देखा और विद्यालय को आगे बढ़ाया।
मुझे अपने बड़े बुजुर्गों से जानकारी मिली कि हमारे स्वर्गीय दादाजी श्री जगतराम मैठाणी भी इस विद्यालय के प्रबंधक सदस्यों में रहे हैं श्री जगतराम मैठाणी जी महादेव चट्टी और गैंडखाल के विद्यालयों के प्रबंधक या मैनेजर के रूप में सेवाएं दे चुके हैं, 50 के दशक में स्वर्गीय दादा जी श्री जगतराम मैठाणी जी का सिलोगी में आयुर्वेदिक औषधालय था, उसी दौरान वे इस विद्यालय के प्रबंधक के सदस्यों के साथ विद्यालय के प्रगति के लिए अपनी सेवाएं दे चुके हैं। वरन सिलोगी के विद्यालय को 1951-52 में हाई स्कूल की मान्यता मिली और 1980 में यह इंटरमीडिएट कॉलेज के रूप में उच्चीकृत हुआ, 1971-72 में यहां पर विज्ञान वर्ग के लिए अलग संकाय बनाया गया।
पिछली सदी के उत्तरार्ध में यह एक आवासीय विद्यालय हुआ करता था। संभ्रांत हो या गरीब सभी अपने बच्चों को पढ़ने हेतु इस विद्यालय में भेज दिया करते थे जहां शिक्षक गुरु और संरक्षक दोनों की भूमिका में बच्चों को देखा करते थे। भक्त दर्शन जी अपनी पुस्तक गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां में लिखते हैं कि सदानंद कुकरेती जी का अंतिम समय में वे “हर समय विद्यालय की चिंता और रोज उनकी ग्वील-बड़ेथ की चढ़ाई!” इसी चिंता का असर उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ा और 18 जुलाई 1936 को उनका निधन हो गया।
शिक्षा के लिए अपना अनुपम योगदान देने वाले सदानंद कुकरेती जी को शत-शत नमन वे सचमुच में हमारे गढ़वाल की विभूति है और उनका किया गया अनुपम प्रयास का स्मारक आज भी सिलोगी विद्यालय के रूप है. सदानंद कुकरेती जी का पुण्य स्मरण चिर काल तक होता रहेगा। फोटो साभार गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां पुस्तक।
लेखन ✍️✍️©️ प्रशांत मैठाणी (copy right)